ऐेे इन्सान मन को मार, क्योंकि तूं है प्राणियों में सरदार ।
मनजीतै तो तू जगजीत, छोड़ दे मनप्रीत होजा ख़बरदार ।।
मन को अपने अधीन करना, समझो आँधी को रोकने जैसा ।
कोई सु में रत सुरत सूरवीर बीर ही, कर सकता है कुछ ऐेैसा ।।
ये सुरत चलाते सुमिरन-रुपी गोली, तो मन मर जाता इस से ।
अभ्यास द्वारा कुछ भी असंभव नहीं है, तो कैसे बचेगा मन ये ।।
वीरवान-सुरत को करना चाहे काबू, दुष्ट मन के पँजे का जादू ।
पर ये सुरत, शब्द-अभ्यास द्वारा मन को ही कर लेता है काबू ।।
- ( कुलदीप सिंह 'इकोभलो' )
* रचना तिथि : २००३
मनजीतै तो तू जगजीत, छोड़ दे मनप्रीत होजा ख़बरदार ।।
मन को अपने अधीन करना, समझो आँधी को रोकने जैसा ।
कोई सु में रत सुरत सूरवीर बीर ही, कर सकता है कुछ ऐेैसा ।।
ये सुरत चलाते सुमिरन-रुपी गोली, तो मन मर जाता इस से ।
अभ्यास द्वारा कुछ भी असंभव नहीं है, तो कैसे बचेगा मन ये ।।
वीरवान-सुरत को करना चाहे काबू, दुष्ट मन के पँजे का जादू ।
पर ये सुरत, शब्द-अभ्यास द्वारा मन को ही कर लेता है काबू ।।
- ( कुलदीप सिंह 'इकोभलो' )
* रचना तिथि : २००३
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